आंदोलन

मंदिर मेहलों से सजे है
लोग लिए खड़े ध्वजे है
फिर भी शांति क्यों नहीं

और लोग बदलने को तैयार है
सड़को पर खड़े मांग रहे अधिकार है
फिर भी क्रांति क्यों नहीं

कुछ इसी तरह के सवाल
पीछले पच्चीस वर्षों से पूछ रहा हूं
नैतिक ज़िम्मेदारी और निजी स्वार्थ
इन दोनों मै ही जूझ रहा हूं

यह वही सवाल है जो की
सदियों से पूछे जा रहे हैं
कोई भी इन से अछूता नहीं है
यह हर किसी के ज़हन में आ रहे है

पर समाज की बुनियाद पर
कैसे पड़े प्रभाव
यह बात जानने लायक है
मिलके खो़जते है हम और आप

ख़ोजा तो पाया कि इंसान का जीवन
पेट की भूख से बंधा है
बदलना और करना तो हर कोई बहुत कुछ चाहता है
पर जरूरते ज़िन्दगी में ही फसां है

थाली की रोटी में ही छूपी
इंसान की क्रांति और शांति है
इसी के लिए मंदिरों में गर्दनें झुकती है
और जनता सरकारों को मानती है

फिर तो जिस दिन थाली में से रोटी जाएगी
उसी दिन इंसान करहाएगा
उस दिन एक नया गांधी पैदा होगा
और मेरे देश में आंदोलन आएगा।

जिस ज़िन्दगी में

जिस ज़िन्दगी में मरने की चाह हो
उस ज़िन्दगी को मैं कैसे ज़िन्दगी कहूं

और जिस घर में होता बेवजह कलह हो
उस घर को मैं कैसे घर कहूं

दोनों ही बिखरने की कगार पर है
मौत आज या कल में दोनों को खाएगी

यह असम्यक बर्बादी बड़ी खतरनाक है
क्या कोई ताक़त इसे रोक पाएगी

कोई रोक भी पाएगा तो कैसे
यह बीस साल पहले शुरू हुआ मंज़र है

विषेले शब्द और वोह कड़वी यादें
आज हाथ में बना यह खंजर है

मौत पहले घर की होगी या ज़िन्दगी की
देखने वालों को बस इसी का इंतजार है

मेरी तरफ़ से तो चाहे कुछ भी हो
दोनों तरफ़ से मेरी ही हार है।