प्रभु जी तुम निष्ठुर कठोर

प्रभु जी तुम निष्ठुर कठोर

कुछ तो करो बदलाव रे
गहरे मेरे घाव रे
फंस गया हूं मैं, ना है कोई छोर

प्रभु जी तुम निष्ठुर कठोर

अब बातों पे, यकीन नहीं तेरी
दिल में चले तेरे हेरा फेरी
ज़माने भर में मचायुंगा, मैं इस बात का शोर

की प्रभु जी तुम निष्ठुर कठोर

अपना हमको तुम ने बनाया
थोड़ा अपना जलवा दिखाया
फिर क्यों आज ना है कोई ठोर

प्रभु जी तुम निष्ठुर कठोर

दुख में मैंने अन जल है त्यागा
मत तोड़ो मेरे प्रेम का धागा
तुम हो पतंग और मैं हुं डोर

प्रभु जी तुम निष्ठुर कठोर

मुझसे छुटे तो कहां जायोगे
मेरे बिन क्या रह पायोगे
चाहे लगा लो पूरा जोर

प्रभु जी ना बनो निष्ठुर कठोर

मन की आशा और निराशा

मन की आशा और निराशा, दोनों मन की ही संतान रे
मन में ही उत्पन होती है, और मन को ही करती परेशान रे

पल पल कर जीवन को रहती खाती
तेल तो रहता, पर जल जाती बाती

कितने लोग इस तरह, समय से पहले ही गुज़र गए
कितने सूरज की तरह तो चढ़े, पर दोपहर में ही उतर गए

मन को सुधार, जग सुधरेगा
राग द्वेष निकाल, सब सुधरेगा

मन के प्रांगण को धो, लेकर समता का पानी
करके को देख ज़रा रे प्यारे, इसमें कोई नहीं है हानि

उजला चित, उजला व्यक्तित्व, उजली होगी पहचान रे
जो जीवन लगता था बोझल सा, होगा जीना आसान रे

मन निर्मल हो, आनंदित हो, ना रहे राग द्वेष का रोग रे
मन की परते खोल रे, अमृत रस फिर तु भोग रे।

01.03.2013