मन की पर्ते

मन की पर्ते खोली तो उनमें दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध थी
कहीं राग की, कहीं द्वेष की, कहीं काम की, कहीं क्लेश की

भाग उठा मन वहां से, कहता कि अब और नहीं
यह कैसी लत लगी है मुझे, जिसकी तलब पे मेरा कोई ज़ोर नहीं

लाचार हूं, कि कोई बचा दे मुझे
परेशान हूं, की कोई हटा दे मुझे

पर भिखारियों की इस दुनिया में दाताकार कोई और नहीं
सब फंसे है इस दलदल में और मददगार कोई और नहीं

आंसूओं से समुद्र भर दिया, पर तारणहार कोई और नहीं
चाहे गलती की है मैंने अनजाने में, पर बख्शनहार कोई और नहीं

जब सब करने वाला मन है मेरा, तब करावनहार कोई और नहीं
खुद ही खुद को समझ ले प्यारे, समझावनहार यहां कोई और नहीं।

5.01.2013

अकेले जन्म लिया है

अकेले जन्म लिया है
और अकेले ही मारना होगा

कोई नहीं कर सकता
तुम्हें अपना उद्धार, ख़ुद ही करना होगा

कड़ी मेहनत और निरंतर पुर्षार्थ की जरूरत है
ख़ुद को ही ख़ुद में ढूंढ़ना है, तुझ में ही उसकी मूरत है।

13.02.2013