ना जाने

सोचता हुं कि निकलु मन की कैद से
अरसा हो गया है इस कैद में

कितने सूरज चड़ के उतर गए
पर मेरी आज़ादी कि कोई किरण मेरे दरवाज़े तक ना पहुंची

आसान नहीं है, इन दीवारों को तोड़ पाना
समय और मेहनत दोनों की ही जरूरत है

ना जाने कब मैं की मैं को छोड़ पाऊंगा
ना जाने कब इन दीवारों को तोड़ पाऊंगा।

होंगी कृष्ण संग गोपिन

होंगी कृष्ण संग गोपिन

राधे ब्रज मा बैठी बिलके
गए नहीं कृष्ण इस बार भी मिलके
काटे थे दिन मैंने गिन गिन

होंगी कृष्ण संग गोपिन

पूछूंगी कहां अब तक दिन बिताए
मिलने तुम इतने दिन से ना आएं
हुआ तुमसे मिलने कठिन

होंगी कृष्ण संग गोपिन

जाने कहां वोह रास रचाए
गोपियों का मन कृष्ण पे आए
कृष्ण तो है भी चंचल मन, कमसिन

होंगी कृष्ण संग गोपिन

जब कोई गोपी कृष्ण को छूती
दिल करता उसे कर दुं विभुति
कृष्ण बस मेरे ही स्वामीन

होंगी कृष्ण संग गोपिन

काश मैं होती कृष्ण के संग
देख लेती सवारें के रंग
राधा तड़पे जैसे पानी बिन मीन

होंगी कृष्ण संग गोपिन

यह सब सोच रही थी राधा रानी
पीछे सुनी कान्हा को वाणी
मुड़ देखा, खड़े रसलीन

होंगी कृष्ण संग गोपिन

राधा की सुध बुध सी खो गई
कृष्ण को देख बस मस्त सी हो गई
कृष्ण कहें की राधा तेरे ही आधीन

संग नहीं थी कोई गोपीन।