जिस ज़िन्दगी में

जिस ज़िन्दगी में मरने की चाह हो
उस ज़िन्दगी को मैं कैसे ज़िन्दगी कहूं

और जिस घर में होता बेवजह कलह हो
उस घर को मैं कैसे घर कहूं

दोनों ही बिखरने की कगार पर है
मौत आज या कल में दोनों को खाएगी

यह असम्यक बर्बादी बड़ी खतरनाक है
क्या कोई ताक़त इसे रोक पाएगी

कोई रोक भी पाएगा तो कैसे
यह बीस साल पहले शुरू हुआ मंज़र है

विषेले शब्द और वोह कड़वी यादें
आज हाथ में बना यह खंजर है

मौत पहले घर की होगी या ज़िन्दगी की
देखने वालों को बस इसी का इंतजार है

मेरी तरफ़ से तो चाहे कुछ भी हो
दोनों तरफ़ से मेरी ही हार है।

मेरे इशारों पर

ज़िन्दगी क्यों नहीं चलती, मेरे इशारों पर

कभी झूमती, कभी नाचती
साज़ की बजती तारों पर

ज़िन्दगी क्यों नहीं चलती, मेरे इशारों पर

कभी है हंसती, कभी है रोती
अपने खुद के विचारों पर

ज़िन्दगी क्यों नहीं चलती, मेरे इशारों पर

कभी दमकती, कभी चमकती
अपने खड़े किए मीनारों पर

ज़िन्दगी क्यों नहीं चलती, मेरे इशारों पर

कभी है जलती, कभी है बुझती
व्यंग कसती अंधकारों पर

ज़िन्दगी क्यों नहीं चलती, मेरे इशारों पर

कभी है चड़ती, कभी उतरती
आ कर रुकती, किनारों पर

ज़िन्दगी क्यों नहीं चलती, मेरे इशारों पर

कभी है खिलती, कभी मुरझाती
छा जाती है बहारों पर

ज़िन्दगी क्यों नहीं चलती, मेरे इशारों पर

कभी बरसती, कभी गरजती
खुशियां बिखेरे हज़ारों पर

ज़िन्दगी क्यों नहीं चलती, मेरे इशारों पर

कभी सिमटती, कभी बिखरती
बनती तस्वीर दीवारों पर

ज़िन्दगी क्यों नहीं चलती, मेरे इशारों पर।

01.04.05