जिंदगी

जिंदगी समझ में कहां आती है?

कहां पूरी होती है वोह ख्वाहिशें
जो चाहत–ए–रूह हो जाती है
जिंदगी…

रोज़मराह की मुश्किलों को आसान करने में
टुकड़ा टुकड़ा कर के सारी उम्र गुज़र जाती है
जिंदगी…

जैसे दिन ढल जाता है, कुछ देर रहकर
वैसे ही यह जिंदगानी ढल जाती है
जिंदगी…

समय की रेत में, सब मिटता चला जा रहा
कहां मेरी कोई खींची लकीर, बनी रह पाती है
जिंदगी…

और फिर कहते है
की जिंदगी का मिलना बहुत बड़ी इनायत है
मान लिया, मुझे कहां इस बात से कोई शिकायत है

पर क़त्ल-ओ-ग़ारत के इस माहौल में
कितनो को कोई मदद-गारी मिल पाती है
जिंदगी…

शायद कोई मतलब, कोई जवाब, है ही नही
कितने बने, कितने मरे, कोई हिसाब है ही नही
बस नदी की लहर है, जो की बहती चली जाती है

जिंदगी समझ में कहां आती है?

ज़िन्दगी समझ जाएगी

ज़िन्दगी तो कोरा कागज़ है
कुछ भी लिख दो, यह तो समझ जाएगी

मान लेगी उसे अपनी किस्मत
और उसे सुधारने में लग जाएगी

राही तु डगर पर पांव तो रख
मंजिल ख़ुद-बा-ख़ुद तुझे नज़र आएगी

यूहीं लंबी लगती है डगर तुझको
कुछ घड़ियों में ही यह गुज़र जाएगी

गर कभी थोड़ी खुशियां, ज़्यादा गम हो
तो देख लेना उनके, जिनसे तुम्हारे कम हो
उन के देखते ही, ख़ुद के यह भूल जाएगी

ज़िन्दगी ना रुकती है, ना तुम रुकना
गर लगा के तुम हारे, फिर भी ना झुकना
चलते चलते यह ख़ुद ही संभल जाएगी

गर समझ कर जिये, जैसे जीना है
तो हर दिन उजियारा और रात पूर्णिमा है
फिर तो मौत भी पूछ कर आएगी

ज़िन्दगी तो कोरा कागज़ है
कुछ भी लिख दो, यह तो समझ जाएगी।