रिश्तों की समझ

रिश्तों की तुम्हें समझ नहीं, अपनों की पहचान नहीं
घर की तुम्हें कद्र नहीं, घरवालों का मान नहीं

मन की ग़ुलाम हो तुम, ज़िम्मेदारी से अनजान हो तुम
न जाने किस ख़ुशी को ढूंढ रही हो, अपने आप से ही अनजान हो तुम

इसीलिए परेशान होती हो और परेशान करती हो तुम
मन को ना जाने किन किन विचारों से भरती हो तुम

खुश नसीब हो, की रखने वालो ने रखा है
बड़ी मुश्किल से इन्होंने अपने मन को किया पक्का है

अब इम्तिहान ना लो इनका, सब्र का सब्र भी टूट जाता है
इस खामोशी को इनकी कमज़ोरी ना समझो, यह तूफ़ान से पहले का सन्नाटा है

अल्लाह के बन्दों को जिस ने भी कभी छेड़ा, वोह सरे-आम चौराहों पर लुट जाते है
अहम् टूट जाते है, अहम् टूट जाते है

कुछ आंसू बहा कर

कुछ आंसू बहा कर, तुम सचे बन गए
अब रो लिए है हम, यह कह कर तन गए

पर तुम्हे अपनी गलती का तो एहसास नहीं
कहां बेच आए हो, जो इतनी सी शर्म भी तुम्हारे पास नहीं

और फिर कहते हो की सब नोर्मल करदो
अब कभी ना सुनाना इस भूल का किस्सा, इसे दफ़न करदो

पर तुम्हे ना कोई एहसास है, और ना ही कोई बदलाव है
कल भी यही करोगे, बस कब? यही सवाल है

तुम कितने स्वार्थ से भर गए हो, की तुम्हे अपनो का दुख दिखता नहीं
यह तो खून के रिश्तों की पकड़ है, वरना इस तूफ़ान में कोई टिकता नहीं

ना करो मिट्टी वोह साल, वोह दिन जो सिंचन में लगाएं है
मत छोड़ो इस कश्ती को, किनारे से बहुत दूर हम आएं है

कहना हमारा फ़र्ज़ है, पर करना तुम्हारी चाह है
फूल बिछा रहे थे हम क़दमों में, क्यूंकि कांटो भरी यह राह है

समझ करो ऐ प्यारे, अपनी भूल सुधारो
अपने नहीं मिलेंगे कहीं, चाहे लोग इकठ्ठे करलो हज़ारों।