घर की तुम्हें कद्र नहीं, घरवालों का मान नहीं
मन की ग़ुलाम हो तुम, ज़िम्मेदारी से अनजान हो तुम
न जाने किस ख़ुशी को ढूंढ रही हो, अपने आप से ही अनजान हो तुम
इसीलिए परेशान होती हो और परेशान करती हो तुम
मन को ना जाने किन किन विचारों से भरती हो तुम
खुश नसीब हो, की रखने वालो ने रखा है
बड़ी मुश्किल से इन्होंने अपने मन को किया पक्का है
अब इम्तिहान ना लो इनका, सब्र का सब्र भी टूट जाता है
इस खामोशी को इनकी कमज़ोरी ना समझो, यह तूफ़ान से पहले का सन्नाटा है
अल्लाह के बन्दों को जिस ने भी कभी छेड़ा, वोह सरे-आम चौराहों पर लुट जाते है
अहम् टूट जाते है, अहम् टूट जाते है