मन की आशा और निराशा

मन की आशा और निराशा, दोनों मन की ही संतान रे
मन में ही उत्पन होती है, और मन को ही करती परेशान रे

पल पल कर जीवन को रहती खाती
तेल तो रहता, पर जल जाती बाती

कितने लोग इस तरह, समय से पहले ही गुज़र गए
कितने सूरज की तरह तो चढ़े, पर दोपहर में ही उतर गए

मन को सुधार, जग सुधरेगा
राग द्वेष निकाल, सब सुधरेगा

मन के प्रांगण को धो, लेकर समता का पानी
करके को देख ज़रा रे प्यारे, इसमें कोई नहीं है हानि

उजला चित, उजला व्यक्तित्व, उजली होगी पहचान रे
जो जीवन लगता था बोझल सा, होगा जीना आसान रे

मन निर्मल हो, आनंदित हो, ना रहे राग द्वेष का रोग रे
मन की परते खोल रे, अमृत रस फिर तु भोग रे।

01.03.2013

मजबूरियां

मुश्किल हालातों ने मजबूरियों को रहने की जगह क्या दी जिंदगी में,
की अब वोह जाने का नाम ही नहीं ले रही है।

हर बार कोई न कोई बहाना बता के,
कुछ देर ओर की मोहलत मांग कर ठहर जाती है।

इस दफ़ा तो कोई बहाना सुनने वाला नहीं हूं मैं,
हाथ पकड़ कर निकाल बाहर करने वाला हूं मैं।

पर मेरी ताक़त-ए-परवाज़ कुछ कम है इन दिनों,
बस इसी मजबूरी के चलते कुछ कह नहीं पाता हूं मैं।

मजबूरियों ने चारो तरफ से ऐसे घेरा है मुझे,
के बेबस और लाचार सा महसूस करता हूं खुद को।

ए मेरे मौला, अब तू ही इमदाद कर मेरी,
मुझे मेरी सब मजबूरियों से निजात दिला दे।

इंसान बना के भेजा था ना तूने मुझे मेरे मौला,
मेरे अंदर बैठा वो इंसान बस जगा दे।

जगा यकीन अपने रहम-ओ-करम का मेरा अंदर मौला,
मेरे अंदाज-ए-नज़र मैं असर बड़ा दे।

मजबूरियों को बदल दे कोशिशों में मेरी,
मुझे मेरी मंजिल-ए-आराम तक पहुंचा दे।।