मन में ही उत्पन होती है, और मन को ही करती परेशान रे
पल पल कर जीवन को रहती खाती
तेल तो रहता, पर जल जाती बाती
कितने लोग इस तरह, समय से पहले ही गुज़र गए
कितने सूरज की तरह तो चढ़े, पर दोपहर में ही उतर गए
मन को सुधार, जग सुधरेगा
राग द्वेष निकाल, सब सुधरेगा
मन के प्रांगण को धो, लेकर समता का पानी
करके को देख ज़रा रे प्यारे, इसमें कोई नहीं है हानि
उजला चित, उजला व्यक्तित्व, उजली होगी पहचान रे
जो जीवन लगता था बोझल सा, होगा जीना आसान रे
मन निर्मल हो, आनंदित हो, ना रहे राग द्वेष का रोग रे
मन की परते खोल रे, अमृत रस फिर तु भोग रे।
01.03.2013