जिंदगी समझ में कहां आती है?
कहां पूरी होती है वोह ख्वाहिशें
जो चाहत–ए–रूह हो जाती है
जिंदगी…
रोज़मराह की मुश्किलों को आसान करने में
टुकड़ा टुकड़ा कर के सारी उम्र गुज़र जाती है
जिंदगी…
जैसे दिन ढल जाता है, कुछ देर रहकर
वैसे ही यह जिंदगानी ढल जाती है
जिंदगी…
समय की रेत में, सब मिटता चला जा रहा
कहां मेरी कोई खींची लकीर, बनी रह पाती है
जिंदगी…
और फिर कहते है
की जिंदगी का मिलना बहुत बड़ी इनायत है
मान लिया, मुझे कहां इस बात से कोई शिकायत है
पर क़त्ल-ओ-ग़ारत के इस माहौल में
कितनो को कोई मदद-गारी मिल पाती है
जिंदगी…
शायद कोई मतलब, कोई जवाब, है ही नही
कितने बने, कितने मरे, कोई हिसाब है ही नही
बस नदी की लहर है, जो की बहती चली जाती है
जिंदगी समझ में कहां आती है?
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बाकी कुछ नहीं
जब तक जिए फिज़ाओं में
चंद घड़ियां भी बहुत लंबी लगती है
ग़म की छाओ में
दोनों ही वक़्त, झूठे और बेमतलबी है
पर जीवन भर समझ ना सके
कोल्हू के बैल की नाइ
बस चलते ही गए, चलते ही गए
ज़मीर बेचा और प्यार बिक गया
अच्छा वक़्त लाने के लिए
कमबख़्त वक़्त तोह आया नहीं
पर मौत आ गई सुलाने के लिए
अब अपना ही घर नहीं मिल रहा है मुझे
अपने ही गांव में
तन मेरे बहुत जल रहा है
पुराने बरगद की छाओं में
अब अक्ल आए भी तो क्या
तांश के पत्तो का खेल तो पूरा हो गया
अब माफ़ी मांगे भी तो क्या
ज़माने भर के लिए में बुरा हो गया
अब सोच रहा हूं कि कुदरत एक मौका और दे अगर
तो गलतियां सुधार लू
इस बार औरों के लिए जियू
और ज़माने भर को प्यार दू
पर यहां दूसरा मौका देते नहीं
कहते की बेऐतबारी है
अल्लाह को रो कर क्या कहूं
जब गलती ही हमारी है
गर वक़्त है तो जान लो विशाल
सब मिट्टी है और मेला है
पूरे यकीन से इबादत करो उस रब की
गर मजनू है तो लेला है
वोह है, वोह है, वोह है, वोह है
बाकी कुछ नहीं
यह उसकी महफ़िल का नशा है
शराब और साकी कुछ नहीं
इबादत ही सच है, बाकी कुछ नहीं
कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं।